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कविता

विदा-2

अनुकृति शर्मा


"जा रही हूँ" कहा मैंने
फिर कनखियों, मोड़ ग्रीवा
तुम्हें ताका।
कौन जाने, बाँह गह कर
रोक लो तुम
बढ़े पग को
टोक दो तुम
और कहो
"क्यों जा रही हो?
रुको, ठहरो, सुनो क्षण भर
नहीं है यह खेल
चल दो तुम अचानक,
तनिक सोचो
साथ के साझे पलों को
स्मृति में जब वे खलेंगे
मन गलेंगे
और तपपक कर रिसेगी
आँख से ये पीर,
प्यार की सब साँवरी परछाइयाँ
होंगी अँधेरी
और बुझेंगे साथ मिल
बाले जो दीप
गिरा कर यह डार फूली
जा रही हो?"
किंतु तुम बस रहे अनखे,
कहा "जाओ,
यदि मिले यों ही तुम्हें
कुछ शांति, पाओ।
चाह कर भी
नहीं रोकूँगा तुम्हें मैं
पथ तुम्हारा
नहीं छेकूँगा, सुनो, मैं
रहो, जाओ, करो मन का
मैं स्थिर हूँ और रहूँगा
शांत, केंद्रित, निज धुरी पर,
मैं रहूँगा बस यहीं पर।"
बिना चाहे चल पड़ी तब
किंतु अब भी ताकती हूँ
मैं कनखियों, कौन जाने
तुम पुकारो।
 


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